ऋचा जैन की कविताएँ

षड्यंत्र

 

शब्द सताते रहे

सालों साल

बिछाते रहे एक

मायावी जाल

 

ख़ुद से बातें करना

ख़ाली दृश्य देख मुसकाना

अकथनीय पे झुँझलाना



उन्मत्त सी रहने लगी

जब तक कि मैंने लेखनी नहीं उठाई




 

मैं वक्र

 

जोड़ने दो बिंदूओं को मुझे 

 

टेढ़ी-मेढ़ी लकीरों से

स्वछंद घुमावों से 

सजाने दो कँगूरे, बेलबूटे 

 

-     सरल रेखाएँ मेरी प्रवृत्ति नहीं

 



अ-ध्यान

 

जतन कर छोड़ने को प्रपंच दुनिया के

दृढ़ होकर आज बैठा मैं ध्यान करने

मेरुदण्ड तान के, योग-मुद्रा बाँध के,

भ्रू-मध्य केंद्र बना, बैठा मैं ध्यान करने

 

ढूँढने की आस में इक चमकते बिंब को

खोजने की चाह में उस परम आनंद  को

श्वास के प्रवाह को भी किंचित मंद कर

शून्य में समाने को, बैठा मैं ध्यान करने

 

प्रयास से इंद्रियों को कुछ संयमित कर

भावना के वेग को भी कुछ संतुलित कर

विचार कर विचारों के जटिल जाल से

मुक्त हो जाने को, बैठा मैं ध्यान करने

 

मैं देखता, एक तरल निकलता ललाट से

बुनता सघन जाल, अविराम एक मकड़ा

पास, पास ही है जाल, प्रतिपल विकराल

मुँदे चक्षुओं से भी देखता मैं,  एक मकड़ा

 

उस सघन जाल में, ढूँढता मैं बिम्ब को

ध्यान को ध्यान रख, संबोधता स्वयं को

तन्तुओं को काटता धार से विचार की

वार को ही बुनने को तत्पर, एक मकड़ा

 

हर विचार पर विचार, हर विचार का संचार

हर ऊगते विचार को बुनता, वो एक मकड़ा

मैं काटता, वो कातता, मैं तोड़ता, वो जोड़ता

देखता मैं हतप्रभ, सतत कर्मरत, एक मकड़ा

 

ना ध्यान का ध्यान, ना समय का भान

छोड़ने जो बैठा था, उसमें जा जकड़ा

जतन कर छोड़ने को प्रपंच दुनिया के

दृढ़ होकर आज बैठा था ध्यान करने

 

 

कई सवाल थे तुम्हारे

 

कई सवाल होते थे तुम्हारे

कुछ सरल, कुछ कठिन

कुछ के जवाब मैं तुरंत दे देता

कुछ हँस के टाल देता

कुछ के जवाब तो मुझे भी पता नहीं थे

 

इतना बोलते थे कि लगता था बस पाँच मिनिट शांत हो जाओ

कुछ जवाब पता थे

ये नहीं पता था - समझाऊँ कैसे

 

मछलियों के घर कहाँ होते हैं ?

स्पोर्ट्स कार की हेड लाइट्स कहाँ होती हैं?

अंधेरे में रंग क्यों नहीं दिखते ?

वग़ैरह - वग़ैरह

 

इन सवालों के साथ-साथ एक सवाल और पूछा था तुमने ,

कमर क्यों झुक जाती है?

 

काश, उस वक़्त इसे अच्छे से समझा सकता

तो आज तेरी आवाज़ सुनने को कान ना तरसते होते

और शायद हम आज एक ही छत के नीचे होते

 

मैं तेरे बच्चों का घोड़ा बनता

उनके आड़े टेढ़े सवालों के जवाब देता

 

अब हर सवाल का जवाब है मेरे पास



फ़ेसबुक

 

एक क्लिक  फ़ेसबुक

और फिर जैसे शुरू हो जाता

है विस्तार अनंत का

 

एक योनि से दूसरी योनि में

जैसे प्रेवेश करता है कोई जीव

 

छछून्दर बनता है

कुत्ते सी दुम हिला 

हाथी सी सलाहें दे 

गधा, घोड़ा, छिपकली

कॉकरोच, और फिर

मेंढक सा उचक के

आता है वापस

अपने पेज पर

अपनी योनि में

जल्द फिर उसी यात्रा में वापस जाने को

 

यही क्रम

यही संसार 

यही आनंद

 

बोध सब का

बस मुक्ति का नहीं

 

कहते हैं, 84 लाख योनियाँ हैं,

बहुत हैं




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ऋचा जैन [1976] हिंदी और अंग्रेजी में लिखती हैं। ऋचा जर्मन भाषा की समझ भी रखती हैं। उनका प्रथम कविता संग्रह ‘जीवन वृत्त, व्यास ऋचाएँ’ भारतीय उच्चायोग, लंदन से सम्मानित एवं भारतीय ज्ञानपीठ से जनवरी 2020 में प्रकाशित हुआ है।





 

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