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Showing posts from October, 2017

जॉन हेन्स कविताएँ

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नींद चाहे सो जाएँ चाँद के तले बंजारों की तरह, अपनी जेब में चांदी के सिक्के लिए हुए, या रेंगकर गहरे चले जाएँ किसी कंदरा में जिसमें से गुनगुने, रोयेंदार चमगादड़ खीसें काढ़ते हुए भरते हैं उड़ान, या पहन लें एक बड़ा काला कोट और बस अंधकार में कर लें कूच, हम बन जाते हैं आख़िरकार पेड़ों की तरह जो खड़े रहते हैं ख़ुद के बीच, सोच में डूबे। और जब हम जाग जाते हैं — अगर जागना होता भी है — तो लौट आते हैं एक एकाकी बचपन की छवियाँ लिए हुए — हाथ जो हमने थामे थे, धागे जो हमने खोले थे अपने नीचे की परछाइयों से, और ध्वनियाँ गोया किसी और कमरे से आती हुई आवाज़ें जहाँ हमारे जीवन का कोई हिस्सा रचा जा रहा था — जिसके पास हम लेटे हुए थे, इस इंतज़ार में कि अपना जीवन शुरू हो। ----------------   पहाड़ पर लंबी निष्क्रियता से उबरकर हम चले, खड़ी ढाल वाली चरागाह पर झुकते हुए, सरसफलों की खोज में, फिर लाल हो रही धूप में ही हवा के थपेड़े खा रहे पहाड़ की धार से गुज़रते हुए गए ऊपर। एक परछाईं हमारे पीछे-पीछे पहाड़ पर चली आई, उगते हुए काले चाँद की तरह. ढाल पर पतझर की बत्तियाँ मिनट-दर-मिनट बुझ गईं

वोल्हा हापेएवा की कविताएँ

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कि तुम ठहरे पेड़ और हवा ने तज दिया है तुम्हें खड़े रह सकते हो तुम सदियों तक अचल और तुम्हारे मन को सुहाता नहीं पंछियों का कलरव भी कि तुम एक पेड़ ठहरे जिसे तज दिया है हवा ने ---------------------------------------------------------------  मैं जागती हूँ गैरों की घड़ी के अलार्म से मैं फिर से लिखती हूँ गैरों का लिखा मैं सोचती रहती हूँ गैरों के मृतकों के बारे में मैं मिलती हूँ गैरों के दोस्तों से मैं बोलती हूँ गैरों की भाषाएँ मैं   लेती हूँ अपनी तस्वीर गैरों के बच्चों के साथ मैं सहलाती हूँ गैरों की बिल्लियों को मैं किसी के कमरों में नहीं   रहती मैं किसी की किताबें नहीं पढ़ती मैं किसी के कांटे से नहीं खाती और ना ही इस्तेमाल करती हूँ किसी का चाकू मैं किसी का कंबल ओढ़ कर नहीं सोती मैंने इसी तरह सीखा है मेहमान बनना इस गैरों और किसी की नहीं दुनिया में कि बाद में जब मेरा स्वागत नहीं होगा मैं मर सकूँगी अपनी ही मौत से। अंग्रेजी से अनुवाद - मोहन राणा  वोल्हा हापेएवा/ Volya Hapeyeva/Вольга Гапеева [1982,मिन्स्क:बेलारूस] कवि, विचारक, अ