मंदाक्रांता सेन की कविताएँ
रास्ता
तुम्हारी आँखों के भीतर
एक लंबा रास्ता ठिठका हुआ है
इतने दिनों तक मैं उसे नहीं देख सकी
आज जैसे ही तुमने नज़रें घुमाई
मुझे दिखाई दे गया वह रास्ता।
बीच-बीच में तकलीफ़ झेलते मोड़
रास्ते के दोनों ओर थे मैदान
फ़सलों से भरे खेत
वे भी जाने कब से ठिठके हुए थे
यह सब तुम्हें ठीक से याद नहीं
आँखों के भीतर एक रास्ता पड़ा हुआ था
सुनसान और जनहीन।
दूसरी ओर
कई योजन तक फैला हुआ है कीचड़
वहाँ रास्ता भी व्यर्थ की आकांक्षा-जैसा मालूम होता है
कँटीली झाड़ियाँ और नमक से भरी है रेत,
कहीं पर भी ज़रा-सी भी छाया नहीं
इन सबको पार कर जो आया है
क्या तुम उसे पहचानते हो?
वह अगर कभी भी राह न ढूँढ़ पाए
तो क्या तुम उससे नहीं कहोगे
कि तुम्हारी आँखों में एक रास्ता है
जो उसका इंतज़ार कर रहा है?
--------------------------------------------------
लज्जावस्त्र
रास्ते से जा रही हूँ
और मेरे वस्त्र खुलकर गिरते जा रहे हैं
मैं नग्न हुई जा रही हूँ माँ!
और आखि़र घुटनों के बल बैठ जाती हूँ
दोनों हाथों से जकड़ लेती हूँ
दोनों घुटनों को,
छुपा लेती हूँ अपना चेहरा
अपना पेट अपना सीना
खुली पीठ पर अनगिनत तीर बिंधने लगते हैं
माँ, यकृत तक को तार-तार कर रही हैं नज़रें
हृदय और फेफड़ों को भी …
शायद ये सब दुःस्वप्न हैं
लेकिन दुःस्वप्न तो हर रास्ते पर बिखरे हुए हैं
भागने की जी जान से कोशिश करती हुई
मैं गलियों कोनों-अँतरों में घुस जाती हूँ
हर तरफ़ भीड़ ही भीड़!!
कितने कौतूहल से देखती रहती हैं गलियाँ
दोनों ओर से दीवारें जकड़ लेती है
मेरा दम घुटता जा रहा है
अट्टहासों का झुण्ड मेरी ओर दौड़ता आ रहा है
ओ माँ,ख़ून की धार में बही जा रही हूँ
खू़न पोछूँ किस तरह …
मेरी देह पर कपड़े का एक टुकड़ा भी नहीं
भयंकर लज्जा से मरी जा रही हूँ
आखि़रकार मैं किस तरह
अपने घर लौट सकी भगवान जाने …
और माँ,उधर उन लोगों ने तब
मेरे नग्न शव को
परचम से ढँकना शुरू कर दिया था …
--------------------------------------------------
अकाल
पश्चिम दिगंत में,
बादल ठिठके हुए हैं ईश्वर की तरह
सोच रहे हैं- इस धरती पर
अब भी क्या उतरने का समय नहीं हुआ
नहीं हुआ इसीलिए झुलसी जा रही है छाती।
दिगंत के थोड़े ही ऊपर
ईश्वर का चेहरा ठिठका हुआ
वह उतर आना चाहता है धरती पर
हालाँकि वह बेहद डरा हुआ है
बहुत ही असम्मत है
दोनों के मध्यवर्ती जलवायु
पश्चिमी आसमान में इसी लिए
खून नहीं है ... घाव हैं केवल
मूल बांग्ला से हिन्दी अनुवाद: उत्पल बैनर्जी
मंदाक्रांता सेन (1972) बांग्ला कवि।
कई कविता संग्रह, कुछ उपन्यास, लघु कथाएँ
और निबंध प्रकाशित किए हैं।
मंदाक्रांता कोलकाता में रहती हैं।
Comments
Post a Comment