अज़िता क़हरेमान की कविताएँ
मैंने जिया
वे तमाम आदमी और औरतें जिनका जीवन मैंने जिया
उनकी नींदें जिनमें मैंने देखे सपने
उनके सपने जिन्हें मैंने जिया
उनका दुख जो बचा रह गया मेरे रोने के लिए,
वे तराने, हवाएँ और बुदबुदाते जाप
अब फुसफुसाते हैं मेरे बीतते समय में....
वे औरतें जिनका जीवन मैंने जिया
वीरान जगहों में
वे निशान जिन्हें हवा उड़ा ले गई
तुम्हारी आँखें और अनगिनत चेहरे
तुम्हारी सूरत और मेरी आँखें
वे कलेवर जिन्हें मैंने जिया
चीड़ के पेड़,पत्थर और कबूतर
कबूतर, पत्थर और चीड़ के पेड़
मैं ही थी गिरती हुई सारी बरफ़
उमड़े समुंदर थे जो तुम्हारे भीतर,
किसी और के रास्ते थे मेरे पैर
किसी और के पैर और तुम्हारे रास्ते
वे सारे गीत जो मैंने गाये
तुम्हारे मुँह से
सारे आदमियों और औरतों के चेहरे पर
जिनका जीवन मैंने जिया
------------
समुंदर
कोई आ सकता है क्या
इस तट पर एक निशान लगाने
और कहने कि यहाँ दुनिया का अंत है?
मैं सोना चाहती हूँ
समुंदर के शब्दों पर
नुक़्तों और रेत पर
कोई आ सकता है क्या
और जो हटा सके उन्हें जो नमक का खंभा बन गए थे
पलट देख एक झलक अनुपस्थित प्रदेश की,
और क्या कोई कम कर सकता है इन दूरियों को?
अपनी नग्नता के साथ
मैं सो जाना चाहती हूँ
पक्षियों के कोलाहल में
और उस समुंदर में जो उसके हाथों में जागता है,
अब
कोई कम कर सकता है क्या दुनिया के शोरगुल को
इनके छह कविता संग्रह फारसी में छप चुके हैं।
अज़िता स्टॉकहोम,स्वीडन में रहती हैं।
Slovenian Literature and read at Slovenian Book Fair, Cankarjev dom,
Ljubljana, Slovenia in November 2016.
वे तमाम आदमी और औरतें जिनका जीवन मैंने जिया
उनकी नींदें जिनमें मैंने देखे सपने
उनके सपने जिन्हें मैंने जिया
उनका दुख जो बचा रह गया मेरे रोने के लिए,
वे तराने, हवाएँ और बुदबुदाते जाप
अब फुसफुसाते हैं मेरे बीतते समय में....
वे औरतें जिनका जीवन मैंने जिया
वीरान जगहों में
वे निशान जिन्हें हवा उड़ा ले गई
तुम्हारी आँखें और अनगिनत चेहरे
तुम्हारी सूरत और मेरी आँखें
वे कलेवर जिन्हें मैंने जिया
चीड़ के पेड़,पत्थर और कबूतर
कबूतर, पत्थर और चीड़ के पेड़
मैं ही थी गिरती हुई सारी बरफ़
उमड़े समुंदर थे जो तुम्हारे भीतर,
किसी और के रास्ते थे मेरे पैर
किसी और के पैर और तुम्हारे रास्ते
वे सारे गीत जो मैंने गाये
तुम्हारे मुँह से
सारे आदमियों और औरतों के चेहरे पर
जिनका जीवन मैंने जिया
------------
समुंदर
कोई आ सकता है क्या
इस तट पर एक निशान लगाने
और कहने कि यहाँ दुनिया का अंत है?
मैं सोना चाहती हूँ
समुंदर के शब्दों पर
नुक़्तों और रेत पर
कोई आ सकता है क्या
और जो हटा सके उन्हें जो नमक का खंभा बन गए थे
पलट देख एक झलक अनुपस्थित प्रदेश की,
और क्या कोई कम कर सकता है इन दूरियों को?
अपनी नग्नता के साथ
मैं सो जाना चाहती हूँ
पक्षियों के कोलाहल में
और उस समुंदर में जो उसके हाथों में जागता है,
अब
कोई कम कर सकता है क्या दुनिया के शोरगुल को
अंग्रेजी से अनुवाद - मोहन राणा
अज़िता क़हरेमान ईरानी कवि व अनुवादक हैइनके छह कविता संग्रह फारसी में छप चुके हैं।
अज़िता स्टॉकहोम,स्वीडन में रहती हैं।
These poems by Azita Ghahreman(1962) were translated by Mohan Rana in Hindi at a translation workshop from English translations by Omid Ghahreman and in consultation with Azita herself at Škocjan organized by Center for Slovenian Literature and read at Slovenian Book Fair, Cankarjev dom,
Ljubljana, Slovenia in November 2016.
Comments
Post a Comment