संतोष अलेक्स की कविताएँ







बौना

 बालकोनी में बैठकर
 चाय की चुस्‍की लेते वक्‍त
अचानक नजर पडी बोनसाई पर
यूं तो यह आकार में है बौना
मगर है आकर्षक जरूर

दसवीं मंजिल से
सामने के घर दिखते हैं बौने
हमारे फलैट का चौकीदार है बौना
बौने हैं
उसकी पत्‍नी , बच्‍चे व इच्‍छाएँ

वामन को वरदान दे
महाबली भी हो गया बौना
बौना है
कमरे की चारदीवारी में कैद
झूठी शान में जीता आदमी
वह आदमी नहीं
बोनसाई हो चुका है........



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इंतज़ार है
( अग्निशेखर जी के लिए )



कश्‍मीरी पंडित
अब कश्‍मीर में नहीं रहते
वे मिल जाऐंगे दिल्‍ली
इलाहाबाद या गाजियाबाद में
इनकी संपत्ति हड़प ली गई
पुरूषों की हत्‍या हुई
स्त्रियों से बलात्‍कार
जो बचे थे उन्‍हें कश्‍मीर छोड़ना पड़ा

घाटी में उनके घर की चिमनियों से
धुँआ उड़ता था
बच्‍चे घूमा फिरा करते थे
उड़ रहा है धुँआ अब बारूद का
घूम रहे हैं आतंकवादी
घूम रही है टुकड़ी सेना की
डल झील
चिनार के पेड़
घाटी
सब चुप हैं
चुप हैं हवाएं दिशाएं

बेघर हैं वे दशकों से
अब न पन ध्‍युन 1 ही मनाया जाता है

न हेरथ 2 ही उस तरह
इंतज़ार है नवरेह 3 पर्व पर
कश्‍मीर लौटने का
फिर बनेगी नेनी कलिया  4
दम आलू 5, मुजी चेटिन 6
और खीर

जब वे लौटेंगे एक दिन
अपने चिनारों के नीचे
होगी राहत महसूस
कि अब न होगा आठवां विस्‍थापन


1.  भादों में मनाए जानेवाला पारंपरिक उत्‍सव
2.  शिवरात्रि
3.  कश्‍मीरी पंडितों का नया साल
4.5.6. कश्‍मीरी पंडि़तों के पकवान 






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गांव की सड़क

सड़क जहाँ मुडती है
वहां दोनों तरफ खेत हैं
कहीं पर सडक के संग
क्‍यारियाँ दिखती हैं
कहीं गडरिया
भेडों को हांकते हुए ले जा रहा है
कहीं कुल्‍फीवाले को
बच्‍चों ने घेर लिया है
तो कभी नौ बजे की बस
पॉम पॉम करती हुई
साढे दस बजे पहुँचती है
हाट के पास उसके मुड़ने पर
धूल से लथ पथ यात्री व रिक्‍शेवाला
किसी पेंटिंग से भी
कम सुंदर नहीं लगते


बस रुकती है
कोई शहर से लौटा है
कोई शहर जा रहा है
कोई यह सब देखते हुए
बीड़ी पी रहा है
हाट के बंद होने की सूचना देकर
बस चली जाती है
सड़क वीरान हो जाती है

बावजूद इसके
वह सुबह फिर एक नए दिन के
लिए तैयार होती है
हमारे संग






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अफगानिस्‍तान

( कमरान मीर हजार के लिए )

शाम को बेटी को पढाने बैठा
अंग्रेजी किताब के पन्‍नों को पलटकर देखने पर
डायरी दिखाते हुए उसने कहा
अफगानिस्‍तान पर लेख तैयार करना है पापा
कुछ दिनों पहले अखबार में
अफगानिस्‍तान पर छपा लेख याद आया
उस पन्‍ने को संभालकर रखा भी था
याद करने की कोशिश की
इतने में वह फिर बोल पडी
पापा , वहां तो बम गिर रहे हैं
स्‍कूल कॉलेज बंद हैं
वहां के बच्‍चों को भी पढने का हक हैं न ?


मैं खामोश रहा
बेटी, मैं और कमरान
अफगानिस्‍तान के आकाश में
सूर्यकिरण विमानों के करतब के इंतजार में हैं





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पोस्‍टकार्ड


मेरी पेंशन रूक गयी है
माँ की तबीयत खराब है
खपरैल टूट गए हैं
इस बार भी फसल खराब हो गयी
अपना ख्‍याल रखना
बेटा, हो सके तो एक बार गांव आना








संतोष अलेक्स द्विभाषी कवि और मलयालम-हिन्दी अनुवादक हैं।
कविता , अनुवाद और आलोचना की 30 पुस्तकें प्रकाशित
हो चुकी हैं।
अलेक्स कोच्ची, केरल में रहते हैं।




































           






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