नींद चाहे सो जाएँ चाँद के तले बंजारों की तरह, अपनी जेब में चांदी के सिक्के लिए हुए, या रेंगकर गहरे चले जाएँ किसी कंदरा में जिसमें से गुनगुने, रोयेंदार चमगादड़ खीसें काढ़ते हुए भरते हैं उड़ान, या पहन लें एक बड़ा काला कोट और बस अंधकार में कर लें कूच, हम बन जाते हैं आख़िरकार पेड़ों की तरह जो खड़े रहते हैं ख़ुद के बीच, सोच में डूबे। और जब हम जाग जाते हैं — अगर जागना होता भी है — तो लौट आते हैं एक एकाकी बचपन की छवियाँ लिए हुए — हाथ जो हमने थामे थे, धागे जो हमने खोले थे अपने नीचे की परछाइयों से, और ध्वनियाँ गोया किसी और कमरे से आती हुई आवाज़ें जहाँ हमारे जीवन का कोई हिस्सा रचा जा रहा था — जिसके पास हम लेटे हुए थे, इस इंतज़ार में कि अपना जीवन शुरू हो। ---------------- पहाड़ पर लंबी निष्क्रियता से उबरकर हम चले, खड़ी ढाल वाली चरागाह पर झुकते हुए, सरसफलों की खोज में, फिर लाल हो रही धूप में ही हवा के थपेड़े खा रहे पहाड़ की धार से गुज़रते हुए गए ऊपर। एक परछाईं हमारे पीछे-पीछे पहाड़ पर चली आई, उगते हुए काले चाँद की तरह. ढाल पर पतझर की बत्तियाँ मिनट-दर-मिनट बुझ गईं
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