कविता - दिनकर मनवर
किसी को भूलना याद करने जैसा होता हो
मैं तुम्हें भूलना चाहता हूँ
पर तुम तो घास कि तरह
मेरे मन की दीवार पर
उग रही हो हर रोज़
आज इतवार है और सूर्य ठीक छह बजकर पंद्रह मिनट और कुछ सैकिंड के बाद निकल
आया है मेरी खिड़की के दृश्य में
सुबह से वह मेरी तरफ देख रहा है उसकी धूप
मेरी पीठ को तुम्हारे हाथों के स्पर्श जैसी महसूस हो रही है
सुबह चाय पीता हूँ
तो लगता है
तुम सक्कर बनकर
मेरी जुबान पर घुल रही हो
किसी को भूलना शायद याद करने जैसा होता हो वरना कड़ी धूप में पेड़ की छाँव
मुझे अब तक प्यार नहीं करती ना ही छूती मेरे तन मन को ठंडी हवा के झौंके जैसी
जिंदा रहने के लिये दिनभर कुछ करता रहता हूँ चाय पीता हूँ सिगरेट पीकर
धुआँ छोडता रहता हूँ हवा में फिर भी तुम भीड़ में खड़ी दूर से मुझे आँखों से
बुलाती रहती हो
क्या करूँ कि तुम याद न आओ इस सोच में भटकता रहता
हूँ मैं रात के अँधेरे में इस अजनबी शहर के अनदेखे रास्तों पर, पर तुम तो कदमों की आवाज़ बनकर मेरे पीछे पीछे चली आती हो
मैं तुम्हें भूलना चाहता हूँ
अपनी पुरानी कविता की तरह
पर तुम ख्वाब की तरह
रात मेरी नींद में
नदी की तरह
…
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